Sunday, January 30, 2011

रश्मि जी के कमेन्ट पर दो बातें (प्रतिक्रया के तौर पर)


दखलंदाजी पर कि हुई पोस्ट मोटी मलाई पर सबकी नजर पर असीम की प्रतिक्रिया

सही कहा अलोक भाई, बीसीसीसीआई में भ्रस्टाचार के इतने अवसर देखकर सरकार की खोपड़ी ठनक गयी है और वहा भी अपना रेगुलेटर लगाकर भ्रस्टाचार के नए रेकार्ड्स बनाना चाहती है.

फिर रश्मि जी की प्रतिक्रिया

क्या बात कही है आपने ....
Alok ji! खेल तो खेल सरकार सीबीआई को भी रेगुलेट कर लेती है. बस नही कर पाती है तो भ्रस्टाचार को, मंहगाई को, गरीबी को, बेरोजगारी को और काले धन को............. ये वो सच है जिसका जवाब सरकार के पास बिलकुल नहीं है ...इस पर वो बगले झाकती नजर आएगी ..... its really controversial funda of govt.

हमारा संवाद

सोचता हूँ तो कभी कभी लगता है कि अगर हम एक समाज में रह रहे है तो कम से कम समाज वाला ढाचा तो होना ही चाहिए. मै अब तक जिस किसी सिद्धांत से सबसे ज्यादा इंस्पायर हुआ हूँ वो है डार्विन का सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट......मुझे हमेशा से उसकी बात सच लगती रही है ...मगर यह सच जंगल का है , जानवरों का है, मेरी गली में मैं जिन जिन कुत्तों को देखता हूँ यह उनका सच है ...मगर जैसे जैसे बड़ा हो रहा हूँ, समाज को करीब से देख रहा हूँ , वैसे वैसे लग रहा है कि हम सब भी अब तक एक जानवर ही हैं , एक बड़े वाले जानवर.

तो फिर अगर सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट ही सही है तो कैसी सरकार, कैसा समाजवाद और कैसी डेमोक्रेसी? अगर एक सरकारी पुलिस पब्लिक कि सुरक्षा नहीं कर सकती, एक सरकारी संस्था खेलों का हित नहीं कर सकती तो फिर हम क्यूँ सोचे कि सरकार का नियंत्रण रहे ...हम आसानी से प्राइवेट गार्ड रख कर भी तो काम चलाते हैं ना ..

Friday, January 28, 2011

अजीत साही





प्रसिद्ध पत्रकार अजीत साही इजरायल में

Tuesday, January 25, 2011

कुत्ता बनने की ख़ुशी

मेरी सबसे अच्छी बात
कि मै दुखी रहता हूँ
सोचता हूँ तो लगता है कि आहा क्या बात है !
वाह मजा आ गया कि मै दुखी रहता हूँ .

समझ पाना कठिन है
मगर सोंचो
अरे अगर खुश रहता तो क्या समझ पाता
कि दुनिया दुखी कैसे रहती है ?
माना कि किसी मूवी में देख लेता या किसी कहानी में पढ़ लेता कि
दुखी ऐसे हुआ जाता और कुढा ऐसे जाता है
या कुत्ता वैसे बन जाया जाता है

मगर बिना कुत्ता बने ये समझ पाना तो एकदम पोसिबल नहीं था ना !
अब जब भी कोई कहता है कि वो दुखी है
तो मै बड़ा खुश हो जाता हूँ
अरे सोरी मेरा मतलब है कि दुखी हो जाता हूँ
और लगता है जिंदगी में हर चीज काम आती है
कुता बनना भी .

Saturday, January 22, 2011

गौरव सोलंकी कहानी

तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं और नॉस्टेल्जिया

मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।

फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।

- सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं?

मैं मुस्कुरा देता हूं। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूं और बनाने लगता हूं। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।

- तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?

- मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है।

- कहानी कब सुनाओगे?

- तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?

- चाय में लिखा है।

- अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ?

- नहीं, दूसरी की।

- मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ?

- नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं?

- तुम सवाल बहुत पूछती हो।

वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।

मैं पूछता हूं, "सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?"

- मुझे नहीं पता...

मैं जानता हूं कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूं। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, "कौनसी?"

मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।

उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।

- कंगूरे क्या होते हैं?

अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।

मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है? वह कहती है कि उसे डूबना आता है।

मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है?

वह कहती है कि उसे डूबना आता है।

और मैं आखिर कह ही देता हूं कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूं। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूं।

मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है।

उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूंढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने 'ड्रैकुला' देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी...शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा।

लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का 'एक से बढ़कर एक' याद आता है, सुनील शेट्टी का 'क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो' याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो।

वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं।

कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।

मैं कहता हूं कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है?

मैं नहीं बताता।

गौरव सोलंकी

(ब्लॉगिंग की दुनिया में सक्रिय गौरव सोलंकी एक आई टी कंपनी में कार्यरत हैं.)

Wednesday, January 19, 2011

मोटी मलाई पर सबकी नजर




हांकी को चौपट करने के बाद अब खेल मंत्रालय का दिल क्रिकेट पर आ गया है. मंत्रालय खेलों को रेगुलेट करने के नाम पर बीसीसीआई पर यह दबाव बनाने में जुटा है कि बीसीसीआई खुद को खेल मंत्रालय के अन्तर्गत रजिस्टर कराये. हाल ही में हम सभी ने यह अच्छी तरह देख परख लिया है कि खेलों को रेगुलेट करने में सरकार कितनी सक्षम है. कामनवेल्थ खेलों मे सभी ने सरकार की रेगुलेशन पावर को काफी करीब के देखा है. यह भी देखा है कि खेल तो खेल सरकार सीबीआई को भी रेगुलेट कर लेती है. बस नही कर पाती है तो भ्रस्टाचार को, मंहगाई को, गरीबी को, बेरोजगारी को और काले धन को. आश्चर्य़ की बात है कि अच्छी तरह चल रहे क्रिकेट बोर्ड को सरकार रेगुलेट करना चाहती है. बीसीसीआई अपने आप में एक स्वायत्त संस्था है जो अपने खिलाड़ियों के वेलफेयर का पूरा ख्याल रखती है. इसी संस्था ने क्रिकेट को फर्श से अर्श पर ला कर खड़ा किया. धोनी और पठान जैसे खिलाड़ियों को छोटे शहरो से लाकर स्टार बना दिया. आज बीसीसीआई की बनाई यही क्रिकेट टीम दुनिया की नंबर 1 टीम मानी जाती है. इसे बीसीसीआई का मैनेजमेंट ही कहना चाहिये कि आईसीसी में इंडिया की तूती बोलती है. अब जब इस तरह की कोई संस्था सुचारू रुप से खेल को नये आयामों तक ले जाने में सक्षम हो गई है तो मंत्रियों, अफसरों और उनकी बीबियों को बीसीसीआई मोटी मुर्गी की तरह नजर आने लगी है जिसके हांथ लगते ही उन्हे मुफ्त विदेशी ट्रिपें और फ्री पार्टियां आसानी से मिलने लगेंगी. समझ नही आता कि सुरेश कलमाड़ी जैसे किसी रेगुलेटर को लगा कर सरकार क्या रेगुलेट कर लेगी?

Tuesday, January 18, 2011

सांप ने रोकी ट्रेनों की रफ्तार

शुक्लागंज, अ.प्र : गंगाघाट स्टेशन के पूर्वी केबिन के पास लेवर पाइप में सांप फंस जाने से सिग्नल लोड नहीं हो सके। जिससे एक घंटे तक अप व डाउन ट्रैक पर ट्रेनों का आवागमन ठप रहा। सिग्नल न मिलने से विभिन्न ट्रेनों को गंगाघाट, मगरवारा व उन्नाव स्टेशनों पर रोक दिया गया। उधर रेलवे कर्मचारी सांप को हटाने के लिये घंटों मशक्कत करते रहे। काफी देर बाद एक सपेरे को बुलाया गया। सपेरे ने काफी देर बाद सांप को पकड़ा। जिसके बाद सिग्नल लोड हुये और ट्रेनों का आवागमन शुरू हो पाया।

गुरुवार दोपहर करीब 3 बजे लखनऊ से राप्ती सागर सुपर फास्ट एक्सप्रेस के आने की सूचना मिलते ही कंट्रोल रूम कर्मचारी ने सिग्नल डाउन करने का प्रयास किया लेकिन सिग्नल डाउन नहीं हुये। वहीं सिग्नल न मिलने से चालक ने ट्रेन को गंगाघाट में ही रोक दिया। उधर पीछे आ रही गरीब रथ एक्सप्रेस को मगरवारा और लखनऊ से कानपुर जा रही 9 एलकेएम को उन्नाव जंक्शन में खड़ा कर दिया गया। इसके अलावा अप लाइन की गाड़ियों को कानपुर आउटर में रोक दिया गया। कर्मचारियों ने पुल पर जाकर देखा तो सिग्नल लोड करने वाले लेवर पाइप में एक सांप फंसा हुआ दिखा। यह देख कर्मचारियों के हाथ पांव फूल गये। कर्मचारियों ने अपने स्तर से सांप को लेवर पाइप से भगाने का काफी प्रयास किया लेकिन कामयाब नहीं हो पाये। हारकर कर्मचारियों ने उच्चाधिकारियों को सूचना दी। बाद में उच्चाधिकारियों ने एक सपेरे को बुलाया। सपेरे ने काफी मशक्कत के बाद सांप को अपने कब्जे में ले लिया। सेक्शन इंजीनियर संकेत एसएच खान ने बताया कि सांप फंस जाने से सिग्नल लोड नहीं हो पाये और एक घंटे तक ट्रेनों का आवागमन ठप रहा। बाद में सपेरे को बुलाकर सांप को पकड़वाया गया। इसके बाद ही ट्रेनों का संचालन शुरु हो पाया।

एक घंटे तक थमे रहे ट्रेनों के पहिये, यात्री बेहाल

उन्नाव : दोनों तरफ से एक घंटे तक ट्रेनों का आवागमन ठप रहने से ट्रेन यात्री खासे बेहाल रहे। वहीं ट्रेनों का संचालन प्रभावित रहा। सबसे ज्यादा परेशानी दैनिक यात्रियों को उठानी पड़ी। उन्नाव जंक्शन पर लखनऊ से कानपुर जा रही 9 एलकेएम पहुंची और करीब 1 घंटे तक खड़ी रही। जब काफी देर बाद भी ट्रेन नहीं चली तो यात्रियों की भारी भीड़ चालक के केबिन के पास पहुंच गई। यात्रियों ने चालक से पूछा तो उसने सिग्नल न मिलने की जानकारी दी। चालक पूरी सूचना न दे सका। इस पर यात्री कंट्रोल रूम में पहुंच गये। वहां पर उन्हें मामले की जानकारी हो पाई। हार कर यात्री वापस गाड़ी में आकर बैठ गये। यही स्थिति मगरवारा में खड़ी गरीब रथ एक्सप्रेस के यात्रियों की रही। वातानुकूलित गरीब रथ ट्रेन लखनऊ के बाद सीधे कानपुर में ही रुकती है। लेकिन बीच में काफी देर रुकने के कारण यात्री आगे किसी हादसे की आशंका सोचकर दहशत में आ गये। किसी तरह से डिब्बे से बाहर निकलकर पूछताछ की तो सांप फंसने की जानकारी हुई। वहीं गंगाघाट स्टेशन पर खड़ी राप्ती सागर के यात्रियों को जब सांप फंसने की सूचना मिली तो अधिकांश लोग उतरकर पैदल ही पुल पर पहुंच गये। पुल पर यात्रियों का भारी मजमा लगा रहा। ट्रेनों के लेट हो जाने से यात्री भी खासे परेशान रहे। जब सपेरे ने सांप को पकड़ लिया और ट्रेनों का आवागमन सामान्य हो पाया इसके बाद यात्रियों ने राहत की सांस ली।

Tuesday, January 11, 2011

कौन है बालीवुड का असली राजकुमार ?




हमारे अभिन्न और अनन्य मित्र असीम का यह आर्टिकल मै यहां साभार प्रकाशित कर रहा हूं:-





नो वन किल्ड जेसिका से अचानक एक राज कुमार चर्चा में आ गए हैं॥ ये हैं बालीवुड निर्देशकों की युवा पीढी के एक और जुझारू सदस्य राज कुमार गुप्ता। इस नाम के ज़ेहन में आते ही दो और नाम कौंधते हैं... राज कुमार संतोषी और राज कुमार हिरानी और अचानक ही अवचेतन मन इन तीनों को कम्पेयर करने में लग जाता है. जो पहली बात दिमाग में आती है वो ये है कि राज कुमार गुप्ता नाम के प्रभाव के मामले में बाकि दोनों राज कुमारों से पिछड़ जाते हैं. क्यूकी शायद उत्तर भारतीय होने के कारन उनका नाम बड़ा ही फेमिलिअर सा लगता है बड़ा आम सा लगता है. पर जब हम क्वालिटी को परखते हैं तो ये फेमिलिअर सा नाम राज कुमार संतोषी और राज कुमार हिरानी से उन्नीस नहीं बैठता. खैर जहा तक तीनो की तुलना का प्रश्न है तो देखते हैं कि इन तीनों के नाम में ही सिमिलरटी है या काम में भी और वो कौन है जिसे बालीवुड का असली राजकुमार कहा जा सकता है.....

राज कुमार संतोषी इन तीनों में सबसे ज्यादा पुराने हैं और सबसे ज्यादा नाटकीय भी। नब्बे के दशक में गोविन्द निहलानी के असिस्टंट के रूप में काम शुरू करने वाले राज कुमार संतोषी ने घायल फिल्म के साथ निर्देशन की दुनिया में कदम रखा. पहली ही फिल्म को सात फिल्म फेयर अवार्ड मिले फिर दामिनी, घातक, पुकार, लज्जा, लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह, खाकी और हल्लाबोल पर बाक्स ऑफिस और एवार्ड शोज़ दोनों ही मेहरबान रहे. और कुछ दिन पहले अपने स्वाद से काफी अलग अज़ब प्रेम की गज़ब कहानी बनाकर फिर सफलता और चर्चा में रहे. कुल मिलाकर उन्होंने बालीवुड के ट्रेंड से जादा छेड़छाड़ ना करते हुए उसमे फ्रस्ट्रेशन और एंगर का तड़का लगाया और ढेर सारी नाटकीयता का मसाला झोंककर हमेशा एक स्वादिष्ट और हिट डिश तैयार करते रहे. लम्बे समय तक काम करना और हिट रहना बताता है कि नयी हवा का रुख भांपकर अपनी डिश के मसाले में ज़रूरी बदलाव करना भी उन्हें अच्छी तरह आता है. जिससे उनकी रेसिपी हमेशा एवरग्रीन बनी रहती है.

अब बात करते हैं राज कुमार हिरानी की, २००३ में मुन्ना भाई एमबीबीएस के साथ अपना निर्देशकीय कैरियर शुरू करने वाले राजकुमार हिरानी भले ही उतने पुराने ना हों, पर सफलता के मामले में असली राजकुमार यही हैं। और इसका क्रेडिट काफी हद तक उनकी कलम को भी जाता है. ऐसा अभी तक नहीं हुआ कि राज कुमार हिरानी फिल्म बनाएं और उसे बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए एवार्ड्स ना मिलें. थ्री इदिअट्स का 'चमत्कार और बलात्कार' वाला सीन इस टैलेंट का ताज़ा उदाहरण है कि वो डायलाग्स से स्पेशल इफेक्ट डालने में कितने माहिर हैं. नाटकीयता के मामले में राज कुमार संतोषी की बराबरी तो नहीं करते पर उनसे ज्यादा पीछे भी नहीं हैं शायद इसीलिये उन्हें क्रिटिक्स का साथ एक हद तक ही मिल पाता है. उनकी मूवीस के सब्जेक्ट्स में एक बड़ी सिमिलार्टी है कि उन्होंने अपने प्लाट्स हमेशा बर्निंग ईस्यूस से ही उठाये हैं. मुन्ना भाई एमबीबीएस में फ्रस्ट्रेशन, लगे रहो मुन्नाभाई में करप्शन और ३ ईडीयट्स में हमारे एजूकेशनल सिस्टम की कुछ बड़ी कमियों को टार्गेट किया है. और यही बात राज कुमार गुप्ता के काम में भी दिखाई पड़ती है. पर ईस्यूज़ के साथ दोनों के ट्रीटमेंट्स में काफी अंतर है.

राज कुमार हिरानी की अप्रोच जादा जनरल है जिससे उनके काम के लम्बे समय तक रिलेवेंट रहने की आशा की जा सकती है। जबकि राजकुमार गुप्ता के साथ ऐसा नहीं है. शायद इसीलिए आमिर से ही नोटिस में आ जाने पर भी नो वन किल्ड जेसिका से उनका नाम नए सिरे से ज़ेहन में आता मालूम होता है. पर गौर करने वाली बात ये है कि उन्हें दर्शकों को बांधके रखने के लिए राज कुमार हिरानी की तरह हलके फुल्के हँसी मज़ाक की मदद नहीं लेनी पड़ती. उनकी कसी हुयी स्क्रिप्ट ही दर्शकों को एंगेज रखने के लिए काफी होती है. एक बहुत बड़ा फर्क ये है कि उन्हें राज कुमार संतोषी और राज कुमार हिरानी की तरह बड़े स्टार्स की मदद नहीं लेनी पड़ती वो कहानी और कैरेक्टर के बलपर फिल्म को हिट करना जानते हैं. और अब बात करते हैं राज कुमार गुप्ता की सबसे बड़ी खासियत की. राज कुमार गुप्ता के काम में नाटकीयता के दर्शन बस नाम मात्र को ही होते हैं जबकि संतोषी और हिरानी बिना लटके झटकों के फिल्म बनाने की सोच भी नहीं सकते. राज कुमार गुप्ता जिन सब्जेक्ट्स पर काम करते हैं उनमे नाटकीयता को दूर रखना जितना ज़रूरी है उतना ही मुश्किल भी. इसलिए निश्चित रूप से राज कुमार गुप्ता का काम क्रिटिक्स की नज़र में भी उतना ही दमदार है जितना कि आम दर्शक की नज़र में.

अब बात करते हैं फ्यूचर की, क्यूकी असली राज कुमार तो वही है भविष्य का राजा हो. ज़रा सोचिये बुद्धिजीवियों की दिन पे दिन बढ़ती संख्या को देखते हुए ये तो साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि राज कुमार संतोषी की शैली अब ज्यादा दिन नहीं टिकने वाली क्योकि नए ज़माने की हवा को पढना अलग बात है और नए ज़माने का होना एक अलग बात है. अब ऐसे में मुकाबला बचता है हिरानी और गुप्ता के बीच में, जहा तक मै समझता हूँ निकट भविष्य में भले ही राजकुमार हिरानी का पलड़ा भारी नज़र आये पर आखिरकार राज़ कुमार गुप्ता का ही समय आना है.. जब फिल्में किसी ड्रीमलैंड की सैर करने की बजाये हमारे मोहल्ले की गन्दगी दिखाएंगी और कोई गंभीर बात कहने के लिए हलके फुल्के मनोरंजक चुटकुलों की ज़रुरत नहीं पड़ेगी. इसलिए मै तो मानता हूँ कि इन तीनों में राज कुमार गुप्ता ही बालीवुड के असली राज कुमार हैं. आप क्या सोचते हैं....?

Friday, January 7, 2011

........चींटी

सुमित्रा नंदन पन्त की यह रचना मैंने तब पढ़ी थी जब मै कक्षा नौ का छात्र था .....मुझे यह रचना बेहद पसंद थी

......चींटी


वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।

गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।

चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।

वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।

साभार : श्री सुमित्रानंदन पंत जी

Wednesday, January 5, 2011

मुन्नी की बदनामी

मुन्नी की बदनामी

चारों तरफ मुन्नी की बदनामी के चर्चे हैं. न्यू इयर पार्टी हो या मैरिज, हर जगह मुन्नी ही बदनाम हो रही है. मुझसे मुन्नी की ये बदनामी देखी नहीं जाती. जब भी मै मुन्नी को बदनाम होते देखता हूं तो लगता है कि यह अन्याय बेचारी मुन्नी के साथ ही क्यूं..साल 2010 भी कम बदनाम तो नही रहा..
इस साल...........
1- न्यूक्लियर बिल पर सरकार हुयी बदनाम
2- कामनवेल्थ में इंडिया बदनाम
3- आदर्श घोटाले मे चौहान बदनाम
4- राजा के चक्कर में प्रधानमंत्री बदनाम
5- संसद रोककर विपक्ष बदनाम
6- कर्नाटक में भाजपा बदनाम
7- बिहार में लालू बदनाम
8- पार्टी में राहुल बदनाम
9- दुनिया भर में अमेरिका बदनाम और
10- विकीलीक्स के असान्जे को उनकी ही गर्लफ्रेंडस् ने बदनाम कर दिया.
...................................................................तो मुन्नी यू आर सेफ नाऊ


आलोक दीक्षित
पत्रकार
जागरण ग्रुप

अजमल कसाब का केस


जब मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब का केस अब लगभग तय हो गया है और उसकी सजा के लिए ६ तारीख का दिन भी निर्धारित कर दिया गया है तो मीडिया में उसे लेकर तरह तरह कि अटकलें लगाई जा रही है. २४ घंटा न्यूज़ देने को बाध्य न्यूज़ चैंनल जो मानो इसी की तलाश में बैठे हो .....ब्लॉग से लेकर सोसल नेटवर्किंग वेबसाइट्स हर जगह हमारे पत्रकार बंधू जमकर लिख रहे है.......५ मिनट पहले ही मैंने एक जाने माने पत्रकार महोदय का ब्लॉग पढ़ा जिसमे उन्होने चिंता व्यक्त की कि कसाब को सजा देने में कई साल लग सकते हैं और कहा कि कसाब को सरेआम गेटवे ऑफ इंडिया पर मौत की सजा देनी चाहिए। फांसी नहीं बल्कि पत्थर मार-मारकर। यदि ऐसा हुआ (होगा नहीं) तो पत्थर मारने के लिए मुंबई से वे भी इंडिया गेट आयेंगे. अब जब हमारे मित्र इतना कष्ट करे को तैयार है तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना मै उनके ब्लॉग पर एक कमेन्ट दे ही डालूं......उसी का कुछ विवरण आप दखलन्दाज मित्रों के साथ शेयर कर रहा हूँ
हमारे पत्रकार बंधुओं आजकल आप लिखते जबरजस्त है और इसके लिए मै आपकी तारीफ़ भी करता हूँ. मगर हर बात उतनी आसान नहीं जितनी कि हम आप लिख या बोल देते है. मै मानता हूँ कि जो कुछ भी आप कह रहे हैं वो भावनापरक है और करोडो लोगों की भावनाएं उससे जुडी हुई है पर ज़रा गौर कीजिये. प्रोसेस हमेशा ही शार्टकट से बेहतर होता है......याद कीजिये वो समय जब हम आप जैसे पत्रकार ही अपने लेखों में बार बार यह मांग कर रहे थे की कसाब पर केस मत चलाओ और जल्द से जल्द उसे फासी पर लटका दो . वकीलों ने उसका केस लड़ने से ही मना कर दिया था.मुझे पता है यह सही है और कसाब ने जो किया है उसके बाद ये बाते बहुत बड़ी या अन्यायपूर्ण नहीं है पर ज़रा गौर कीजिये. यह सब कुछ एक कसाब पर आकर खत्म नहीं हो जाता है...यहाँ बात सिस्टम की है. हमारा संविधान कहता है की कोई भी इंसान तब तक दोषी नहीं है जब तक उसका गुनाह साबित नहीं हो जाता. एक और बात भी हमारे संविधान की ही है और वो है राईट टू फेयर ट्रायल. हमने वो सब किया जो हमारा सिस्टम कहता है और कुल मिला कर हमारा सिस्टम नहीं बदला......इसका मतलब यह है की हम बायस्ड नहीं है, हम कसाब को कोई इस्पेशल इम्पोर्टेंस नही देते ...हमारे लिए हमें हमारा सिस्टम सही रखना ज्यादा जरुरी हैपर आपकी बात भी सही है कि जब पचास फाइलें निबटेंगी तब कसाब का नंबर आयेगा. पर मै फिर कहूंगा की वो सही है क्यूंकि वो पचास भी गुनाहगार है , गलत तो यह है की आखिर ये नंबर पचास पहुचा कैसे? क्या राष्ट्रपती जी को इतना समय नहीं मिल पाया है या जरुरी राजनितिक छूट की वो ऐसे डिसिसन ले पाए जो देश के हित में हो और देश की जनता को सही समय पर न्याय दिलाएं.

आखिर मै ही क्यूँ परिंदा हूँ

आखिर मै ही क्यूँ परिंदा हूँ

जिस गली में तेरे चर्चे है
अफ़सोस वहीँ का मै बाशिंदा हूँ


कोई दीमक हो गर तुम तो
मै दिल से नम हूँ मै शर्मिंदा हूँ


अनेकों शाजिसें हैं क्या सोचूं
बुरा हूँ या मै नेक बन्दा हूँ ?


शहर में तमाम आशियाने है
फिर आखिर मै ही क्यूँ परिंदा हूँ

अरे जाने दो ये दुनियादारी
ये क्यों नहीं कहते कि मै गंदा हूँ


चटका के दिल को तोड़ने वाले
गजब है! आज भी मै जिन्दा हूँ

Tuesday, January 4, 2011

मैंने भी कुछ पूंछा नहीं और उन्होंने तो बताना ही नहीं था

सेना एक अनुशाशन प्रिय संगठन है और यहाँ किसी भी तरह की कि गलती की भारी सजा का प्रावधान है ....महिलाओं को सेना में हमेशा से से विशेष सम्मान दिया गया है , अगर आप आर्मी ला को ध्यान से पढ़ें तो पायेंगे की महिलाओं के साथ अभद्रता की कड़ी सजाएं सेना के कानून में है .....और कई अवसरों पर तो मैंने इनका कठोरता से पालन होते हुए भी देखा है .....मगर एक बात जो हमेशा से मुझे चिंतित करती आई है वो है सेना की बिगडती छवि ....अभी तक सेना की छवि जिन दो बातों गन्दी हुई है है वे हैं - महिला उत्पीडन और भ्रष्टाचार ! गौर करने वाली बात यह है कि आखिर सेना जिन बातों का हमेशा से डंका पीटती आई है वे बाते ही हमेशा उसकी शर्मिन्दगी का विषय बनती रही हैं ...अगर सेना इस बात का खुलासा करे कि आखिर उसके कितने अधिकारी और जवान पिछले ६० वर्षों में सिर्फ इस बात के लिए निलंबित किये गए है कि उन्होंने किसी महिला के साथ रेप किया या दूसरी तरह की अभद्रता की तो यह जान कर आश्चर्य ही होगा की सेना का यह आचरण एक दिखावा मात्र ही है ............महिलाओं के सम्मान के बारे में सेना की कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर है . सेना इस बारे में कई बार विचार कर चुकी है और नियमों में व्यापक सुधार भी हुए हैं ..... मै तो मानता हूँ की सेना के द्वारा उठाये गए कदम काफी हद तक कारगर भी रहे है और इस तरह के केसेस में लगातार कमी आई है
..............फिर आखिर हमें क्यूँ आये दिन ये सुनने को मिलता है कि फलां जगह एक जवान ने किसी लडकी का रेप कर दिया या फला अधिकारी पर उसकी जूनियर ने यौन शोषण का आरोप लगाया ..ये आरोप कई बार सही होते है तो कई बार बेबुनियाद भी साबित होते है ...और दोनों ही बातों से हम ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते की सारे आरोप सही होते है या कि सारे आरोप बेनुनियाद होते है ...पर दुःख तो तब होता है जब किसी को दी गयी विशेष सुविधा का कोई लाभ उठाता है ...मै एयरफ़ोर्स के अबने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूँ कि आज महिलाओं को दिए गए विशेषाधिकार का वे भरपूर दुरपयोग कर रही हैं ...मै कई अधिकारियों को सिर्फ इस भय में जीते देखा है कि कब कोई महिला अधिकारी उनपर यौन शोषण का आरोप लगा दे और वे बदनामी के साथ साथ नौकरी से भी हाँथ धो बैठे ...ऐसा लगता है ये अधिकार अब सिर्फ साधनों की पूर्ती के लिए ही प्रयोग किये जाने लगे है , आपको एक वाकया सुनाता हूँ ....भारतीय वायुसेना में महिलाओं का एक अलग ग्रुप है जिसे अफवा (AFAWA)- Airforce Wife's Welfare Association कहते है ....अब हुआ यूँ की पतिदेव महोदय ने दारू के नशे में सिविलियंस के साथ मारपीट की और बाद में पास के ही थाणे में पीट कर बंद कर दए गए. कमांडिंग ऑफिसर ने भी महोदय के खिलाफ कार्यवाही की संस्तुति कर दी ...मगर उनकी मजाल की वो कुछ कर पाते ...अफवा की महिला मेम्बरों ने जमीन सर पर कड़ी कर दी ...बस फ़ौज के इतने बड़े अधिकारी नतमस्तक हो गए उनके आगे ....अपने प्रभाव से छुड़ाना पड़ा महोदय को ... खैर ने तो उन महोदय की रोज की बात है ...पर सब ठीक चल रहा है ..पत्नी उनकी काफी हंगामेदार है ..संगठन में अच्छी पकड़ है उनकी ..सो चल रहा है उनका
अब ये तो उदाहरण है उनकी पत्नी के प्रभाव का ....मगर वहां एक एकलौती अकेली बेचारी महिला अधिकारी थीं ...मैंने कभी भी उन्हें काम करते नहीं देखा ...उनकी छुट्टी कभी कैंसल नहीं हुई ..एक बार सुनने में आया कि उन्होंने कोई शोषण वोषण का आरोप लगाया था ...रात भर में ही बात निकल पड़ी थी और बात निकली तो इतनी दूर तक गयी कि बस पूंछो मत ....कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और इस्टर्न से लेकर वेस्टर्न कमांड तक हर जगह से मेरे पास फोन आने लगे .....मुझे भी तब ही पता चला कि कुछ हुआ है यूनिट में ...सबेरा होने पर सभी खुश थे की अब उस अधिकारी का तो काम तमाम हो जाएगा ....सबकी छुट्टियाँ अब आसानी से साईन हो जाया करेंगीं ...पर सबेरा हुआ तो पता चला कि मैडम ने अपने आरोप विडड्रा कर लिए है ...मैडम को एक महीने की कैसुअल लीव भी मिल गयी है और मैडम कि स्पेशल ड्राप की भी व्यवस्था भी हो गयी है स्टेशन तक ......बस मै भी उसी ड्राप में उनके साथ आया मगर सौभाग्य से मेरी और उनकी ट्रेन अलग अलग थीं ...मैंने भी कुछ पूंछा नहीं और उन्होंने तो बताना ही नहीं था ......तब से मै समझ गया कि टेढ़ी अंगुली से घी निकालना क्या होता है

खुश हो, आखिर तुम खुश हो!

खुश हो आखिर तुम खुश हो
खुश हो
आखिर तुम खुश हो
फिर तो अच्छा है
मैंने तुम्हारी इस ख़ुशी को कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा
अपनी मजाकिया बातों
नीचे से फट गयी अपनी जींस में
या फिर खुद पर बनाए किसी जोक में
एक पल को तो लगा कि कि तुम खुश हो
और तुम खुश थी भी
मगर कुछ देर में ही
नहीं कुछ दिनों बाद
मुझे मालूम पड़ा कि तुम खुश नहीं हो

समय बदलता गया
मौसम बदले , दुनिया भी बदली
साथ में थोडा तुम भी बदली
तुम्हारी खुशियों कि परिभाषा भी.
और तुम्हे खुश करना दिन पर दिन कठिन होता गया .
मैथ्स कि किसी एक्सरसाइज कि तरह ,
यू पी एस ई के किसी एक्साम कि तरह,
तुम्हारी खुशियों का स्टैण्डर्ड भी बढ़ गया,
मगर मैंने तुम्हारे इस लेवल को ,
एक अच्छे स्कालर कि तरह हमेशा से बीट किया.

एक पल को तो लगा कि मैंने पा लिया वो लक्ष्य,
और फिर तुमने तुमने भी तो यही कहा था .

मगर फिर अचानक तुम्हारा स्टैण्डर्ड और बढ़ गया
मेरी स्किल्स अब और नहीं बढ़ पायीं,

अब मै तुम्हे खुश भी नहीं रख पा रहा था,
तुम्हारे इस एक्साम को मै क्वालीफाई नहीं कर पाया ,
मालुम पडा मेरा काम्पटीसन टफ हो गया है
मेरा काम्पटीसन भी तो था तुम्हारे उस दोस्त से
जो तुम्हे हरदम खुश रखता था ,
जिसने तुम्हारा लेवल बढ़ा दिया था,
और जिसने तुम्हारी खुशियों कि सारी परिभाषाएं समझ रखी थी ।

तुम खुश हो,
आज तुम कितनी खुश हो ,
मगर मै भी खुश हूँ,
तुम सोंच सकती हो कि मै खुश क्यूँ हूँ,
मुझे मालुम है कि तुम ऐसा नहीं सोंचोगी ,
तुम्हारे पास इतना फालतू वक़्त नहीं है ,
फिर भी अगर मै ऐसा मान लूँ ,
तो मै खुश हूँ कि कोई तुम्हारे लेवल को बीट कर पाया,
तुम अप्राप्य नहीं हो,
मेरे जैसा ही कोई तुम्हे जीत चुका है ।
यह बात मेरे हौसले को जिन्दा रखती है,
और मै हमेशा खुश रहता हूँ ।

Monday, January 3, 2011

काश शर्मीला, मै तुम्हे और तुम्हारी माँ को नए साल क़ी मुबारक बात दे सकता!




"अगर आप याद करें तो २००४ की वो घटना आप के जेहन में कहीं कहीं जरुर जाएगी जिसमे मणिपुरी महिलाओं ने कपडे उतार कर असम रायफल्स के हेड क्वार्टर पर नग्न प्रदर्शन किया था ..वे एक बैनर लिए थी जिस पर लिखा था "इंडियन आर्मी , रेप मी".. इस घटना ने मीडिया का ध्यान पहली बार मणिपुर की ओर खीचा था .."




नव
वर्ष की हार्दिक और मंगलमय बधाइयों का सिलसिला अब खत्म हो रहा है. आश्चर्य है कि मुझे मेरे सभी दोस्त मित्रों ने फोन कर बधाईयाँ दी . कई ऐसे लोगों का भी फ़ोन आया जो लम्बे अरसे से मुझसे संपर्क में नहीं थे. कुल मिला कर हमने सबको याद किया और सबने हमको. अच्छा लगा कि लोगों की यादास्त अब तक कमजोर नहीं हुई है जैसा कि हमारे तमाम नेताबंधु सोचते है ..मगर मुझे कुछ चीजो का बड़ा अफ़सोस रहा ...इरोम शर्मीला की कहानी भी उनमें से एक है. अगर आप याद करें तो २००४ की वो घटना आप के जेहन में कहीं न कहीं जरुर आ जाएगी जिसमे मणिपुरी महिलाओं ने कपडे उतार कर असम रायफल्स के हेड क्वार्टर पर नग्न प्रदर्शन किया था ..वे एक बैनर लिए थी जिस पर लिखा था "इंडियन आर्मी , रेप मी".. इस घटना ने मीडिया का ध्यान पहली बार मणिपुर की ओर खीचा था

अब अगर आप को यह याद आ गया हो तो बताते चले की मणिपुर की ही एक लड़की इरोम शर्मीला ने २००१ में यह कसम खायी कि वह अपने राज्य से आर्म फ़ोर्स एस्पेसल पावर एक्ट को हटाये जाने तक अन्न जल ग्रहण नहीं करेगी . उसने यह भी कसम खायी कि जब तक यह एक्ट नहीं हटता वो अपनी माँ से नहीं मिलेगी ... यह ऐक्ट आर्म फोर्सेस को किसी भी व्यक्ति को बिना वारन्ट पकडने, पूछताछ करने और यहां तक कि गोली मारने का भी अधिकार देता है. गांधी की तरह ही शर्मीला नें भी अन्याय के खिलाफ लडाई में अहिंसा को अपना हथियार चुना.. तब से अब तक वहां न जाने कितने ही प्रदर्शन हुए हैं और न जाने कितने ही लोगों ने जाने दी हैं मगर एक्ट नहीं हटा ..इंडियन गवर्मेंट ने २००४ में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जीवन रेड्डी को जांच के आदेश दिए ..२००५ में उन्होंने अपनी रिपोर्ट सौपी जिसमे एक्ट को हटाने कि जोरदार सिफारिस क़ी गयी .. मगर आर्म फोर्सेस के दबाव में सरकार ने रिपोर्ट को ठन्डे बस्ते में डाल दिया
इस सबके बीच शर्मिला ने अपनी कसम वापस नहीं ली .. २००१ से अब तक उसने अन्न जल ग्रहण नहीं किया है ..पिछले दस सालों में वह अपनी माँ से कभी नहीं मिली .. हर साल वह ‘आत्महत्या के प्रयास’ में गिरफ्तार कर ली जाती है. अस्पताल के हाई सिक्योरिटी वार्ड़ में पड़े पड़े अब उसके शरीर के कई अंग बेकार होने लगे है ..उसे नाक में एक नली डाल कर पोषक तत्वों द्वारा जिन्दा रखा जा रहा है .. ..
2008 से इम्फाल में हर रोज कुछ महिलाएं वहां के कंगला फोर्ट पर इकठ्ठा होकर प्रदर्शन करती है और शर्मीला को उसके सत्यागृह में सहयोग देतीं है. हर साल जब भी मेरे दोस्त और पत्रकार मित्र मुझे फोन कर नए वर्ष क़ी बधाइयाँ देते है तो मेरे दिल में बस एक ही बात चुभने लगती है कि 'शर्मीला का नया साल कैसा रहा होगा'.... काश शर्मीला, मै तुम्हे और तुम्हारी माँ को नए साल क़ी मुबारक बात दे सकता!
आलोक दीक्षित
पत्रकार
दैनिक जागरण ग्रुप

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